पतझड़ में बहारों की फिज़ा ढूंढ रहा है,
पागल है जो दुनिया में वफ़ा ढूंढ़ रहा है।
ख़ुद अपने ही हाथों से वो घर अपना जलाकर,
अब सर को छुपाने की जगह ढूंढ़ रहा है।।
कल रात को यह शख्स ज़िया बांट रहा था,
क्यूं दिन के उजालों में दिया ढूंढ़ रहा है।
शायद के अभी उस पे ज़वाल आया हुआ है,
जुगनू जो अंधेरे में ज़िया ढूंढ़ रहा है।।
कहते हैं के हर चाह पे मौजूद ख़ुदा है,
यह सुन के वो पत्थर में ख़ुदा ढूंढ़ रहा है।
उस को तो कभी मुझ से मुहब्बत ही नहीं थी,
क्यूं आज वो फिर मेरा पता ढूंढ़ रहा है।।
किस शहर ए मुनाफिक़ में ये तुम आ गए सागर,
इक दूजे की हर कोई खता ढूँढ रहा है..!!
लेखक: कलाम सागर सिद्दीकी, स्रोत: सोशल मीडिया
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