मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ।
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ।
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।
हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ,
जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा।
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने।
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।।
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते तो यही इंतिज़ार होता।
तुम सलामत रहो हज़ार बरस,
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था,
दिल भी या-रब कई दिए होते।
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया,
वर्ना हम भी आदमी थे बड़े काम के।
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का ,
उसी को देख कर जीते हैं, जिसपे दम निकले।
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा,
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता!
बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू (शत्रु) के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों है।
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।
तुम न आए तो क्या सहर न हुई,
हाँ मगर चैन से बसर न हुई।
मेरा दर्द सुना ज़माने ने,
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है।
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है,
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं।
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको उन्होने ग़र होता मैं तो क्या होता।
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।
हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक।
मौत का एक दिन मुअय्यन है,
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।
फिर से उसी बेवफ़ा पे मरते हैं,
फिर से वही ज़िंदगी हमारी है।
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।