भीड़ पर लाजवाब शेरों - शायरी
जब चल रही थी "सांसें" उसकी,
तो दुनिया को उसकी सफलता से "चीढ़" थी।
चला गया जब, "अच्छा" आदमी कहते हुए,
आज उसके जनाजे के पीछे हजारों कि "भीड़" थी..!!
और कितना परखोगे आप मुझे ...?
क्या इतना काफी नहीं कि अजनबियों की,
भीड़ में हमने सिर्फ आपको चाहा है..।
बहुत भीड़ है, इस मोहब्बत के शहर में...!!
एक बार जो बिछड़ा, दोबारा नहीं मिलता..!!
मेरे अपने ही हैं उस भीड़ में सब ,
जो मेरा घर जलाना चाहते हैं।
अपनी पहचान भीड़ में खो कर,
ख़ुद को कमरों में ढूंढते हैं लोग।
हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़,
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले।
एकांत कई बार आपसे सच्ची बातें करता है,
जो भीड़ आपसे कभी नहीं कहेगी !
अपनी तन्हाइयों के एवज़ में हमनें,
भीड़ को भाड़ में जला डाला !
इक सहमा हुआ सुनसान गली का नुक्कड़,
शहर की भीड़ में अक्सर मुझे याद आया है।
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में,
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी !
दिल में इस कदर भीड़ है कि,
आप आइए, मगर कोई अरमाँ निकाल के !
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं,
अलग अलग हम लोग बहुत शर्मीले हैं।
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं,
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं !
हां माना भीड़ बहुत है, पर तेरे आगे रास्ता तो है ना,
तू चल तो एक बार, नदी का किनारा तो है ना !
सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो।
सभी है "भीड़"में, तुम भी निकल सको तो चलो।।
यहाँ किसी को कोई रास्ता कहां देता है।
मुझे गिरा के गर संभल सको तो चलो !!
बुरे बनने की भीड़ चल रहीं हैं दुनिया में,
अच्छों की तो अपने वजूद की लड़ाई हैं ।
हम-सफ़र चाहिए हुजूर, भीड़ नहीं ।
इक सच्चा मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे।।
अब ऐसी भीड़-भाड़ में क्या गुफ्तगू करें,
तन्हा कहीं मिलो तो बयां आरजू करें।
गुम हो गये कहीं गम भी मेरे,
जालिम भीड़ खुशियाँ भी कुचलती रहीं !
एक दौर था, सिर्फ तुम ही थे,
एक दौर आया, तुम भी थे,
दौर ये भी है, की तुम हो कही नहीं..
खो दिया हमने तुम्हें, जमाने की भीड़ में !
भीड़ बहुत है इस मुहब्बत के शहर में,
एक बार जो बिछड़े वो दोबारा नहीं मिलते।
भीड़ लगाने का मुझे शौक नहीं,
बस एक वफादार ही काफ़ी है।
जब भीड़ में खुद को अकेला पाते हैं ,
तब खुद पर हंसकर मन बहला लेते है।
दुनियां की भीड़ में भी अकेला हूं मैं,
जो चाहा होता तूने तो हम तन्हा ना होते।
कोई ढ़ूढ़ो मुझे, दुनिया की भीड़ में,
कहीं खो गया हूँ, "मैं"।
यूँ तो अपनों के बीच हूँ मगर,
अज़नबी हो गया हूँ "मैं" ।।
मैं हरदम ही अलग चलता हूं लोगों से,
भीड़ में डर रहता है, ख़ुद के खो जाने का !