Positive Life Quotes
1. बुद्धिमान पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चिंत न रहे कि' मैं दूर हूं'। बुद्धिमान की बाॅंहे बड़ी लंबी होती है, सताया जाने पर वह उन्हीं बाहों से अपना बदला लेता है।
2. जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करें ही नहीं, किंतु जो विश्वास पात्र है, उस पर भी अधिक विश्वास न करें, विश्वासी पुरुष से उत्पन्न हुआ भय मूलोच्छेद कर डालता है।
3. मनुष्य को चाहिए कि वह ईर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, संपत्ति का न्याय पूर्वक विभाग करने वाला प्रियवादी तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो परंतु उनके वश में कभी न हो।
4. स्त्रियां घर की लक्ष्मी कही गई है, ये अत्यंत सौभाग्यशालिनी, पूजा के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा है। अतः इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।
5. धर्म, काम और अर्थ संबंधी कार्यों को करने से पहले न बताएं, करके ही दिखाएं। ऐसा करने से अपनी मंत्रणा दूसरों पर प्रकट नहीं होती।
6. वश में आए हुए वध योग्य शत्रु को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिए ,और बल होने पर उसे मार ही डालना चाहिए ,क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है ।
7. देवता, ब्राम्हण, राजा, वृद्ध बालक, और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्न पूर्वक रोकना चाहिए।
8. निरंतर कलह करना मूर्खों का काम है।
9. धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमलवाणी और मित्र से द्रोह न करना- ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं ।
10. सावधान! जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहने वाले मनुष्य की भांति रात में सुख से नहीं सो सकता।
11. जो धन आदि पदार्थ स्त्री , प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप देते हैं वे संशय में पड़ जाते हैं।
12. मनुष्य जितना आवश्यक है, उतने ही काम में लगा रहे, अधिक में हाथ न डालें ,क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है।
13. समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोलें तो उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि की भी अवज्ञा भी होगी।
14. जो बृद्धि ( कोई भी ) भविष्य में नाश का कारण बने उसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, और उस क्षय (नाश) भी बहुत आदर नहीं करना चाहिए जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो। वास्तव में जो क्षय वृद्धि का कारण होता है वह क्षय नहीं है किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिए, जिसे पाने से बहुतों का नाश हो जाए।
15. जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं उन्हें अपने जाति - भाइयों को उन्नति शील बनाना चाहिए। शुभ चाहने वाले को अपनी जाति-भाइयों के साथ कलह नहीं करना चाहिए ।
16. कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपदेश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उसे कर्तव्य का ज्ञान न हुआ अथवा होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ।
17. अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में- जो मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, धार्मिक कोमल, स्वभाव वाला, सलज्ज है, वह सैकड़ो कुलीनों से बढ़कर है।
18. उद्योग, संयम दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच - विचार कर कार्यारंभ करना इन्हें उन्नति का मूल मंत्र समझिए।
19. जल, मूल, फल, दुध, घी, ब्राम्हण की इच्छा पूर्ति, गुरु का वचन, औषध - ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते।
20. जो अपने प्रतिकूल जान पड़े उसे दूसरों के प्रति भी न करें।
21. जो गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश, और बल ये चारों बढ़ते हैं।
22. सोकर नींद को जीतने का प्रयास न करें, कामोंपभोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न करें, लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न करें, अधिक पीकर भी मदिरा पीने की इच्छा को जीतने का प्रयास न करें।
23. अधर्म से उपार्जित महान धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्ट हुए बिना ही त्याग देना चाहिए।
24. आलस्य, मद, चंचलता, गोष्ठी उदण्डता, अभिमान और लोभ - ये सात विद्यार्थियों के लिए सदा ही दोष माने गए हैं।
25. कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिए भी कभी धर्म का त्याग न करें। धर्म नित्य है, किंतु सुख दुख अनित्य है। जीव नित्य है किंतु इसका कारण (अविद्या ) अनित्य है ।
26. शिश्न और उदर की धैर्य से रक्षा करें, अर्थात् काम और भूख की ज्वाला को धैर्य पूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ पैर की नेत्रों और कानों की मन से तथा मन और वाणी सत्कर्मों से रक्षा करें।
27. कलियुग में केवल दान ही धर्म है। कलियुग में केवल पाप करने वालों का परित्याग करना चाहिए।
28. कलियुग में पाप तथा शाप- ये दोनों एक ही वर्ष मे फलीभूत हो जाते हैं।
29. स्नान ,जप ,होम ,संध्या ,देव व अतिथि पूजन इन षट्कर्मों को प्रतिदिन करना चाहिए ।
30. व्यक्ति का पतन अभक्ष्य-भक्षण (शास्त्र निषिद्ध भोजन) चोरी और अगम्यागमन करने से हो जाता है।
31. शत्रु से सेवित व्यक्ति के साथ प्रेम न करें, मित्र के साथ विरोध न करें ।
32. मूर्ख शिष्य को उपदेश करने से, दुष्टों का किसी कार्य में सहयोग लेने से, विद्वान पुरुष भी अंत में दुखी हो जाता है ।
33. काल की प्रबलता से शत्रु के साथ संधि एवं मित्र से द्रोह भी हो जाता है। अतः कार्य-कारण - भाव का विचार करके सज्जन को अपना समय व्यतीत करना चाहिए ।
34. समय प्राणियों का पालन, संहार, लाभ, हानि, उन्नति, पराक्रम, यश एंव अपयश का कारण होता है। समय का चक्र महान है।
35. उत्तम प्रगति वाले सज्जनों की संगति, विद्वानों के साथ-साथ कथा का श्रवण, लोभ रहित मनुष्य के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने वाला पुरुष दुखी नहीं होता।
36. हितकारी अन्य व्यक्ति भी अपने बंधु और यदि बंधु अहितकर है तो वह भी अपने लिए पराया ही है, जैसे शरीर से उत्पन्न रोग अहितकर हैं किंतु वन में उत्पन्न हुई औषधि उस रोग का निराकरण करके मनुष्य का हित साधन करती है।
37. जो आज्ञा पालक है वही वास्तविक सेवक है, जो पति के साथ प्रिय सम्भाषण करती है वही वास्तविक पत्नी है, पिता के जीवन पर्यंत पिता के भरण-पोषण में जो पुत्र लगा रहता है वही वास्तव में पुत्र है।
38. जो नित्य स्नान करके अपने शरीर को सुगंधित द्रव्य पदार्थों से सुवासित करने वाली है, प्रिय वादिनी है, अल्पाहारी है, मितभाषिणी है, सदा सब मंगलों से युक्त है, धर्म परायण है, निरंतर पति की प्रिय है, सुन्दर मुख वाली है, ऋतुकाल में ही पति के साथ सह गमन की इच्छा रखती है वही अनुपम पत्नी है।
39. नरक में निवास करनाअच्छा है किंतु दुष्ट चरित्र व्यक्ति के घर में निवास करना उचित नहीं है।
40. बुद्धिमान पुरुष एक पाॅंव को स्थिर करके ही दूसरे पाॅंव को आगे बढ़ाता है; इसीलिए अगले स्थान की परीक्षा के बिना पूर्व स्थान का परित्याग नहीं करना चाहिए।
41. अर्थ प्रदान के द्वारा लोभी मनुष्य को ,करबद्ध प्रणाम निवेदन से उदारचेता व्यक्ति को, प्रशंसा करने से मूर्ख व्यक्ति और तात्विक चर्चा से विद्वान पुरुष को, अतिरिक्त साधारण लोग खानपान से संतुष्ट होते हैं।
42. जिसका जैसा स्वभाव हो, उसके अनुरूप वैसा ही प्रिय वचन बोलते हुए उसके हृदय में प्रवेश करके चतुर व्यक्ति को यथाशीघ्र उसे अपना बना लेना चाहिए।
43. नदी, नख तथा श्रृंग धारण करने वाले पशु , हाथ में शस्त्र धारण किये हुए पुरुष, स्त्री और राजपरिवार विश्वास करने योग्य नहीं होते हैं।
44. बुद्धिमान पुरुष को अपनी धनक्षति, मनस्ताप, घर में हुए दुश्चरित्र, तथा अपमान की घटना को दूसरे के समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए ।
45. नीच और दुर्जन व्यक्ति का सांनिध्य, अत्यंत विरह, सम्मान (अधिक), दूसरों के प्रति स्नेह एवं दूसरे के घर में निवास- ये सभी नारी के उत्तम शील को नष्ट करने वाले हैं।
46. अपने विहित कर्म, धर्माचरण का पालन, जीविकोपार्जन में तत्पर, सदैव शास्त्र चिन्तन में रत, अपनी स्त्री में अनुरक्त, जितेन्द्रिय, अतिथि सेवा निरत श्रेष्ठ पुरुषों को तो घर में भी मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
47. देव पूजन आदि कर्म, ब्राह्मण को दान, गुणवती विद्या का संग्रहण, तथा सन्मित्र- ये सदा सहायक होते हैं।
48. बुद्धि वह है जो दूसरों के संकेत मात्र से भी वास्तविकता को समझ ले।
49. बालक के मुख से निकले सुभाषित (अच्छे वचन ) ग्रहण करने योग्य हैं । अपवित्र स्थान से स्वर्ण और हीन कुल से स्त्री रूपी रत्न भी मनुष्य के लिए संग्राह्य है। नीच व्यक्ति से श्रेष्ठ विद्या भी ग्रहण करने योग्य है।
50. वह कुल पवित्र नहीं होता जिस कुल में सिर्फ लड़कियां ही उत्पन्न होती हैं।
51. अपने कुल के साथ भागवत भक्तों का साथ कर देना चाहिए, पुत्र को विद्याध्ययन में लगाना चाहिए। शत्रु को व्यसन में जोड़ देना चाहिए। तथा जो अपने इष्ट पुरुष हैं उन्हें धर्म में नियोजित कर देना चाहिए।