Knowledgeable Life Quotes
1. तिरस्कृत होने पर भी धैर्य संपन्न सज्जन व्यक्ति के गुण आंदोलित नहीं होते, जैसे दुष्ट के द्वारा नीचे कर दी गई अग्नि कभी नीचे नहीं जाती।
2. वीर पुरुष शत्रु पक्ष की भयंकर गर्जना सहन नहीं कर सकता।
3. यदि सज्जन मनुष्य दुर्भाग्यवश कदाचित वैभव रहित हो जाता है, तो भी वह न तो दुष्ट जनों की सेवा व सहारा लेता है, जैसे भूख से अत्यंत पीड़ित होने पर भी सिंह घास नहीं खाता, अपितु हाथियों के गर्म रक्त का ही पान करता है।
4. मित्र में अपने प्रति एक बार भी दुष्ट भाव परिलक्षित हो जाने पर उसे त्याग देना चाहिए। अल्प वार्तालाप ही मित्र के लिए है दण्ड है।
5. शत्रु की मृदुभाषी संतानों की उपेक्षा करना, विद्वान जनों के लिए उचित नहीं है; अर्थात प्रिय बोलने वाले शत्रु पुत्रों से भी सावधान रहना चाहिए; क्योंकि समय आने पर वे ही असह्य दुःख - प्रदाता एंव विषपात्र के समान भयंकर विपत्ति उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं।
6. उपकार के द्वारा वशीभूत हुए शत्रु से अन्य शत्रु को समूल उखाड़ फेंकना चाहिए क्योंकि पैर में गड़े हुए कांटे को मनुष्य हाथ में लिए हुए कांटो से ही निकालता है।
7. सज्जन व्यक्ति को अपकार परायण मनुष्य के नाश की चिंता कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह नदी के तट पर अवस्थित वृक्षों की भांति स्वयं ही नष्ट हो जाएगा।
8. धनार्जन करते समय, किसी भी प्रकार का प्रयोग करते समय, अपने कार्य को सिद्ध करते समय, भोजन के समय और सांसारिक व्यवहार के समय मनुष्य को लज्जा का परित्याग कर देना चाहिए ।
9. एक ही व्यक्ति में सभी ज्ञान प्रतिष्ठित रूप में नहीं रहते। इसीलिए यह सर्वमान्य है कि सभी व्यक्ति सब कुछ नहीं जानते हैं और कहीं पर भी सभी सर्वज्ञ नहीं है। इस संसार में न तो कोई सर्वविद् है और न कोई अत्यंत मूर्ख ही है। उत्तम, मध्यम तथा निम्न स्तरीय ज्ञान से व्यक्ति को जितना जानता है उसे उतने में विद्वान समझना चाहिए।
10. जो मनुष्य पराई स्त्रियों में मातृ भाव रखता है, जो दूसरों के द्रव्य को मिट्टी पत्थर के ढेले समझता है, सभी प्राणियों में आत्मदर्शन करता है, वही विद्वान है।
11. जिसके पास धन है, उसी के मित्र एंव बन्धु - बांधव है।
12. धैर्यवान पुरुष कष्ट पाकर भी दुखी नहीं होते, क्योंकि राहु के मुख में प्रविष्ट होकर चंद्र क्या पुनः उदित नहीं होता। अतः अनुकूल समय की प्रतीक्षा धैर्य के साथ करनी चाहिए।
13. उद्योग करने पर यदि व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती है तो उसमें भाग्य ही कारण है, तथापि मनुष्य को सदा पुरुषार्थ करते रहना चाहिए, क्योंकि इस जन्म का ही पौरूष अगले जन्म में भाग्य बनाता है।
14. दुर्जनों के साथ विवाद और मैत्री कुछ भी न करें तो अच्छा होगा।
15. सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण आदि समयों मे मंत्र का जप, तपस्या, तीर्थ सेवन, देवार्चन, ब्राह्मण पूजन - ये सभी कृत्य भी महापातकों को भी नष्ट करने वाले होते हैं।
16. पंडित, विनीत, धर्मज्ञ एवं सत्यवादी जनों के साथ बंधन में भी रहना श्रेयस्कर है, किंतु दुष्टों के साथ राज्य का भी उपभोग करना उचित नहीं है।
17. कोई भी काम अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए।
18. रागी व्यक्ति से वन में भी दोष हो जाते हैं अतः जो व्यक्ति जितेंद्रिय होकर अनिंदित कर्मों में प्रवृत्त हो सन्मार्ग की ओर बढ़ता जाता है, उस विषयवासनाओं से दूर निवृत मार्ग वाले के लिये उसका घर तपोवन हैं ।
19. सत्य के पालन से धर्म की रक्षा होती है। सदा अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है। मार्जन के द्वारा पात्र की रक्षा होती है और शील से कुल की रक्षा होती है।
20. विन्ध्यावटी में निवास करना मनुष्यों के लिए अच्छा है, बिना भोजन के लिए मर जाना, सर्प से परिव्याप्त भूमि पर सोना, कुएं में गिरकर मरना, जल के भयंकर भँवर में डूब कर मरना श्रेष्ठ है। किंतु अपने पक्ष के आत्मीय जन से 'थोड़ा धन मुझे दे दो ' इस प्रकार याचना करना अच्छा नहीं है।
21. भाग्य का ह्रास होने से मनुष्य की संपदाओं का विनाश हो जाता है, न कि उपभोग करने से। पूर्वजन्म में यदि पुण्य अर्जित है तो संपत्ति का नाश कभी नहीं हो सकता।
22. इस संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, जिसको भाग्य के वशीभूत होने के कारण कर्म रेखा नहीं घुमाती। अतः मै उस कर्म को प्रणाम करता हूं।
23. राजा बलि उत्कृष्ट कोटि के दाता थे और याचक स्वयं भगवान विष्णु थे, विशिष्ट ब्राह्मणों के समक्ष पृथ्वी का दान दिया गया, फिर भी दान का फल बंधन प्राप्त हुआ। यह सब दैव का खेल है, ऐसे इच्छा अनुसार फल देने वाले दैव को नमस्कार है।
24. पूर्वजन्म में प्राणी ने जैसा कर्म किया है, उसी के अनुसार वह दूसरे जन्म में फल भोगता है। अतः स्वयमेव प्राणी अपने भाग्य फल का निर्माण करता है, अर्थात वह कर्म फल का स्वयं ही विधाता है, जिस अवस्था, जिस समय, जिस दिन, जिस रात्रि, जिस मुहूर्त अथवा जिस क्षण जैसा होना निश्चित है वैसा ही होगा।
25. न पिता के कर्म से पुत्र को सद्गति मिल सकती है, और न पुत्र के कर्म से पिता को सद्गति मिल सकती है। सभी लोग अपने - अपने कर्म से ही अच्छी गति प्राप्त करते हैं।
26. पूर्व जन्म में अर्जित कर्म फल के अनुसार प्राप्त शरीर में शारीरिक व मानसिक रोग आकर अपना दुष्प्रभाव प्रकट करते हैं।
27. बाल, युवा, तथा वृद्ध जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, वह जन्म जन्मांतर में उसी अवस्था में उस कर्म फल का भोग करता है।
28. मनुष्य अपने प्रारब्ध का फल प्राप्त करता है। देवता भी उस फल भोग को रोकने में समर्थ नहीं है। इसीलिए मैं कर्म के विषय में चिंता नहीं करता और न मुझे आश्चर्य ही है क्योंकि जो मेरा है उसे दूसरा कोई नहीं ले सकता ।
29. सभी प्रकार की सूचिताओं में अन्न की सूचिता प्रधान है, जो मनुष्य अन्न व अर्थ से पवित्र है, वहीं शुचि है, इनके अपवित्र रहने पर केवल मिट्टी व जल से शुचिता नहीं आती।
30. विद्वान, मधुरभाषी भी कोई व्यक्ति यदि दरिद्र है तो उसके समयोचित हितकारी वचन को सुनकर भी कोई संतुष्ट नहीं होता।
31. समय प्राप्त ना होने से पहले प्राणी सैकड़ों बाण लगने पर भी नहीं मरता और समय के आ जाने पर कुशा की नोक लग जाने से वह जीवित नहीं बचता।
32. अपने कर्म से प्रेरित होकर प्राणी स्वयं ही उन - उन स्थानों पर पहुंच जाता है, पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्ता के पीछे-पीछे वैसे ही रहता है, जैसे हजार गायों के रहने पर भी बछड़ा अपनी माता को प्राप्त कर लेता है।
33. नीच व्यक्ति दूसरे में सरसों के बराबर भी स्थित दोष छिद्रों को देखता है किंतु अपने बेल के समान अवस्थित दोष को नहीं देखता।
34. संक्षेप, में पराधीनता ही दु:ख है और स्वाधीनता ही सुख है।
35. प्राणी को सुख भोग के पश्चात दु:ख है, व दु:ख भोग के पश्चात सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार मनुष्य के सुख-दुख चक्र के समान परिवर्तित होते रहते हैं।
36. जो मनुष्य भूतकालिक विषय-वस्तु को समाप्त हुआ मान लेता है, और भविष्य में होने वाले को बहुत दूर समझता है व वर्तमान में अनासक्त भाव से रहता है, वह किसी भी प्रकार के शोक से दुखी नहीं होता है।
37. यदि मनुष्य किसी के साथ शाश्वत प्रेम करना चाहता है तो उसके साथ धूत और धन का लेनदेन एवं परोक्ष रूप में उसकी स्त्री का दर्शन - इन तीनों दोषों का परित्याग कर देना चाहिए।
38. माता, बहिन अथवा पुत्री के साथ एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इंद्रियों का समूह बलवान होता है, वह विद्वान को भी दूराचरण की ओर खींच लेता है।
39. जो मधुर पदार्थों से बालक को, विनम्र भाव से सज्जन पुरुष को, धन से स्त्री को, तपस्या से देवता को, और सद्भावना व सद्व्यवहार से समस्त लोक को वश में कर लेता है, वही पंडित है।
40. अधिक मात्रा में जल का पीना, गरिष्ठ भोजन, धातु की क्षीणता, मल - मूत्र का वेग रोकना, दिन में सोना, रात में जागना - इन छ: कारणों से शरीर में रोग निवास करने लगते हैं।
41. प्रातः कालीन धूप, अतिशय मैथुन, श्मशान के धूप का सेवन, श्मशान के अग्नि में हाथ सेंकना- दीर्घ आयु का विनाश करते हैं।
42. वृद्धा स्त्री, रात्रि में दही का प्रयोग, प्रभात काल में मैथुन एवं प्रातः कालीन निद्रा - ये प्राण विनाशक होते हैं।
43. ताजा घी, द्राक्षा फल, बाला स्त्री ,दूग्ध सेवन, गरम जल तथा वृक्षों की छाया ये शीघ्र ही प्राण शक्ति प्रदान करने वाले हैं ।
44. तैल मर्दन और सुंदर भोजन की प्राप्ति, ये सद्य शरीर में शक्ति का संचार करते हैं किंतु मार्ग गमन, मैथुन और ज्वर - ये सद्य पुरुष का बल हर लेते हैं।
45. जो मलिन वस्त्र धारण करता है ,दांतो को स्वच्छ नहीं रखता,अधिक भोजन करने वाला, कठोर वचन बोलने वाले हैं, और सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भी सोता है ,उसे लक्ष्मी छोड़ देती है।
46. जो मनुष्य नख से तृण छेदन करता है, पृथ्वी पर लिखता है, चरणों का प्रक्षालन नहीं करता, केश संस्कार विहीन रखता है ,नग्न शयन करता है, परिहास अधिक करता है, अपने अंग व आसन पर बाजा बजाता है, तो उसे लक्ष्मी जी त्याग देती हैं ।
47. जो पुरुष अपने सिर को जल से धोकर स्वच्छ रखता है, चरणों को प्रछालित करके मल रहित करता है, वेश्या से दूर रहता है, अल्प भोजन करता है। नग्न शयन नहीं करता, पर्व रहित दिवसों में स्त्री सहवास करता है, तो उसके ये षट्कर्म चिरकाल से भी नष्ट हुई उसकी लक्ष्मी को पुनः उसके पास ले आते हैं ।
48. बाल सूर्य के तेज, जलती हुई चिता का धुॅंआ, वृद्ध स्त्री, बासी दही और झाड़ू की धूली का सेवन; दीर्घायु को नष्ट करते हैं।
49. हाथी, अश्व, रथ, गौ की धूलि, पुत्र की अंग में लगी हुई धुलि, महान कल्याणकारी एवं महा पातकों का विनाश है जिसमें गौ, धान्य व पुत्र के अंग की धूलि श्रेष्ठ है।
50. गधा, ऊंट ,बकरी, भेड़ की धूलि अशुभ होती है ।
51. सुप फटकने से निकली हुई वायु, नाखून का जल, स्नान किए हुए वस्त्र से निचोड़ा हुआ जल, केश से गिरता हुआ जल, झाड़ू की धूनी मनुष्य के पूर्वजन्मार्जित पुण्य को नष्ट कर देती है।
52. ब्राह्मण तथा अग्नि के बीच से, दो ब्राह्मण के बीच से, पति-पत्नी के बीच से, घोड़ा व साड़ के बीच से कभी नहीं जाना चाहिए।
53. प्राणी को अत्यंत सरल व अत्यंत कठोर नहीं होना चाहिए, क्योंकि सरल स्वभाव से सरल व कठोर स्वभाव से कठोर शत्रु को नष्ट किया जा सकता है।
54. सज्जन पुरुष के आगे पीछे संपदाएं सर्वदा घूमती रहती है।
55. छ: कानों तक पहुंची हुई गुप्त मंत्रणा नष्ट हो जाती है। अतः मंत्रणा को चार कानों तक ही सीमित करना चाहिए। दो कानों तक स्थित मंत्रणा को तो ब्रह्मा भी जानने में समर्थ नहीं है।
57. मनुष्य को 5 वर्ष तक पुत्र का प्यार से पालन करना चाहिए, 10 वर्ष तक उसे अनुशासित रखना चाहिए तथा 16 वर्ष की अवस्था प्राप्त होने पर उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।
58. कम शक्तिशाली वस्तुओं का संगठन भी शक्ति संपन्न हो जाता है।
59. मनुष्य को भूलकर भी दुष्ट एवं छोटे शत्रु की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भली प्रकार से न बुझाई गई अग्नि बहुत कुछ भस्म कर सकती है।
60. मनुष्य को गुणहीन पत्नी, दुष्ट मित्र, दुराचारी राजा, कुपुत्र, गुणहीन कन्या और कुत्सित देश का परित्याग दूर से ही कर देना चाहिए।
61. क्रोध से तपस्या नष्ट हो जाती है।
62. दुलार में बहुत से दोष हैं और ताड़ना में बहुत से गुण हैं, अत: शिष्य एवं पुत्र को अनुशासित रखना चाहिए।
63. आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु- ये 5 जन्म से सुनिश्चित रहते हैं।
64. निर्बल का बल राजा, बालक का बल रोना, मूर्खों का बल मौन रहना और चोर का बल असत्य है।
65. लोभ, प्रमाद और विश्वास; व्यक्ति के विनाश के कारण हैं।
66. मनुष्य को भय से उसी समय तक भयभीत रहना चाहिए, जिस समय तक उसका आगमन नहीं हो जाता। भय के उपस्थित हो जाने पर उससे निर्भीक होकर सामना करना चाहिए।
67. ऋण, अग्नि तथा व्याधि के शेष रहने पर वे बार-बार बढ़ते है ,अतः उनका शेष रहना उचित नहीं है।
68. कौमार्य अवस्था में स्त्री की रक्षा पिता करता है, युवावस्था में उसकी रक्षा भार पति पर होता है, वृद्धावस्था में उसकी रक्षा का भार पुत्र उठाता है, स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है।
69. अर्थ के लिए आतुर मनुष्य का न कोई मित्र है, न कोई बंधु, कामातुर व्यक्ति के लिये न भय है और न ही लज्जा, चिंता ग्रस्त व्यक्ति के लिए न सुख है, न नींद, भूख से पीड़ित मनुष्य के शरीर में न बल ही रहता है और न ही तेज।
70. मुख की विकृति, स्वर भंग, दैन्य भाव, पसीने से लथपथ शरीर, अत्यंत भय के चिह्न; प्राणी में मृत्यु के समय उपस्थित होते हैं।
71. अरे! यदि मांगना हो तो ईश्वर से मांगो, वही तो एकमात्र अपना है, उससे दूराव करके दूसरों से लगाव क्यों?
72. अनित्य, अपवित्र, अनात्मभावरत हो, अविद्या कूप-मंडूक बने रहना बुद्धिमता नहीं है, बल्कि स्वाध्याय, ध्यान एवं जप के सहारे बैराग्य, ज्ञान, भक्ति को सुदृढ़ करके दिव्य परमानंद पथ पर आगे बढ़ना है।
73. हे मनुष्य! भव सागर से पार होने के लिए परमात्मा की प्राप्ति का दृढ़ पुरुषार्थ करो - प्रभु प्रार्थना एवं पाठ जाप में मन न लगे तो भी नियम से करते चलो।
74. समुद्र में गोता लगाने से यदि मोती हाथ न लगे तो यह न समझे कि समुद्र में मोती नहीं है। ईश्वर प्राप्ति में यदि तुम्हारा प्रथम प्रयास निष्फल हो, तो अधिर न हो जाओ, निरंतर प्रयास करते रहो, अंत में ईश्वरीय कृपा अवश्य होगी।
75. ईश्वर कृपााभिलाषी मानव को प्रमाद, आलस्य आदि का परित्याग करके प्रतिदिन प्रातः काल नियमपूर्वक प्रभु की उपासना की आदत दृढ़ करनी चाहिए।
76. एक बात का सदैव ध्यान रखें कि प्रभु प्रार्थना के जो भी शब्द मुंह से निकले उनके साथ भावपूर्ण मन का होना आवश्यक है ।
77. संक्रांति, अमावस्या, द्वादशी, पूर्णिमा, रविवार और सायंकाल के समय तुलसी पत्र नहीं तोड़ना चाहिए ।
78. यदि मनुष्य अपने जीवन का उत्सर्ग तीर्थ में करता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। अयोध्या, मथुरा ,माया ,काशी ,कांची,अवंतिका और द्वारका यह सात पुरियाॅं मोक्ष देने वाली है।
79. जो मनुष्य मृत्यु के समय एक बार 'हरि 'इस दो अक्षर का उच्चारण कर लेता है, वह मानव मोक्ष प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध हो गया है।
80. जो मनुष्य प्रतिदिन' कृष्ण - कृष्ण - कृष्ण' यह कहकर मेंरा स्मरण करता है उसको मैं उसी प्रकार मुक्त कर देता हूं जिस प्रकार जल का भेदन कर कमल ऊपर निकल जाता है।
81. तुलसी का वृक्ष लगाने, पालन करने, सींचने, ध्यान स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यों के पूर्व जन्म अर्जित पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं।
82. देवता केवल काष्ठ और पत्थर की शिला में नहीं रहते, वे तो प्राणी के भाव में विराजमान रहते हैं, इसीलिए सद्भाव से युक्त भक्ति का आचरण करना चाहिए।
83. मनुष्य के चित्त में जैसा विश्वास होता है वैसा ही उन्हें अपने कर्मों का फल प्राप्त होता है, क्योंकि मछुआरे प्रतिदिन प्रातः काल जाकर नर्मदा नदी का दर्शन करते हैं किंतु व शिवलोक तक नहीं पहुंच पाते।
84. जो निराहार व्रत के द्वारा मृत्यु प्राप्त करता है, उसे भी मुक्ति प्राप्त होती है।
85. वापी, कूप, जलाशय, उद्यान एवं देवालयों का जीर्णोद्धार करने वाला पूर्व कर्ता कि भातीं दुगुना पुण्य प्राप्त करता है।
86. दरिद्र, सज्जन, ब्राह्मण को दान, निर्जन प्रदेश में स्थित शिवलिंग का पूजन, और अनाथ प्रेत का संस्कार - करोड़ों यज्ञों का फल प्रदान करता है।
87. जिस कार्य को तुरंत आरंभ कर देना चाहिए, उस के संदर्भ में जो उद्योग हीन होकर बैठा है ,जहां जागते रहना चाहिए, वहां जो सोता रहे तथा भय के स्थान पर आश्वस्त होकर रहता है - ऐसा वह कौन है जो मारा नहीं जाता।
88. सत्संग और विवेक- ये दो प्राणी के मल रहित स्वस्थ नेत्र हैं। जिसके पास यह दोनों नहीं है वह मनुष्य अंधा है वह कुमार्ग पर कैसे नहीं जाएगा।
89. शास्त्र तो अनेक है किंतु आयु बहुत ही कम है और उसमें भी करोड़ों विघ्न बाधाएं हैं। इसीलिए जल में मिले हुए क्षीर को जैसे हंस ग्रहण कर लेता है वैसे ही उसके सार-तत्व को ग्रहण करना चाहिए।
90. बंधन और मोक्ष के लिए इस संसार में दो ही पद है। एक पद है, ' यह मेरा है ' इस ज्ञान से वह बॅंध जाता है। दूसरा पद है' यह मेरा नहीं है' इस ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है।
91. दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीनों तापों से संतप्त प्राणी को धर्म और ज्ञान जिसका पुष्प है, स्वर्ग तथा मोक्ष जिसका फल है ,ऐसे वृक्ष रूपी भगवान विष्णु की छाया का आश्रय करना चाहिए।
92. गोमय, अग्नि, दीमक की बाॅंबी, जूते हुए खेत, जल, पवित्र स्थान, मार्ग और मार्ग में विद्यमान वृक्ष की छाया में मल-मूत्र का परित्याग न करें।
93. मनुष्य को प्रातः काल अवश्य ही दंत धवन करना चाहिए। दंत धवन के लिए कदम्ब, बिल्व,, खैर, कनेर, बरगद, अर्जुन, यूपी, वृहती, जाती, करंज,अर्क, अतिमुक्तक, जामुन, महुआ, अपामार्ग, शिरीष, गुलर, बाण, दूध वाले व कटीले अन्य वृक्ष प्रशस्त होते हैं। कड़ुवे ,तीते, कसैले काष्ठ के जो वृक्ष हों, उनकी दतुअन धन-धान्य, आरोग्य व सुख से संपन्न करने वाली है। सबसे पहले दतुअन को जल से धोना चाहिए । फिर उसको दातों से चबा चबाकर मुख साफ करें और अवशिष्ट दतवन को किसी एकांत स्थान में छोड़ देना चाहिए। पुनः मुख को अच्छी प्रकार धो लेना चाहिए।
94. अमावस्या तिथि, नवमी, प्रतिपदा तिथि तथा रविवार के दिन दतुअन नहीं करना चाहिए ।
95. दतुअन के न होने पर तथा निषिद्ध तिथि के आ जाने पर मनुष्य को बारह कुल्ला जल के द्वारा मुख को पवित्र कर लेना चाहिए।
96. शौच के पश्चात मिट्टी से हाथ पैर आदि साफ करने के लिए जल के अंदर से, देवगृह, बॉंबी, चूहे के बिल, दूसरों के उपयोग में आए हुए मिट्टी से अवशिष्ट तथा श्मशान की भूमि की मिट्टी का ग्रहण न करें।
97. वसा, शुक्र, रक्त, मज्जा , विष्ठा, मूत्र, कान का मैल, कफ, आँसू, आंख का कीचड़ और पसीना, यह मनुष्य के शरीर के 12 मल हैं। जो व्यक्ति शुद्धात्मा है,जो प्रातः काल स्नान करता है, वह जपादिक (समस्त ऐहिक और पारलौकिक सुख प्रदान करने वाली) क्रियाओं को करने का अधिकारी है।
98. शरीर अत्यंत मलीन है। इसमें स्थित नव छिद्रों से सदा मल निकलता ही रहता है। अतः प्रातः काल का स्नान शरीर की शुद्धि का हेतु, मन को प्रसन्न रखने वाला तथा रूप और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला तथा सुख-दुख का विनाशक है।
99. विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों देवों के प्रति पृथक भाव न रखे।
100. माता-पिता, गुरु, भ्राता, प्रजा, दीन-दु:खी, आश्रित जन, अभ्यागत, अतिथि और अग्नि - इनका पालन-पोषण मनुष्य को प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए।
111. जेष्ठमास के शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र से युक्त दशमी तिथि में अवश्य स्नान करना चाहिए, जो अनेकों पापों को भस्म कर देती है।